कहानी शुरू करने से पहले एक जानकारी दे दूँ, हमारे शहर में एक दुकान है ‘घमण्डी लस्सी’। शहर के कई लोग इस लस्सी के दीवाने हैं। ओठों पर ग्लास लगाते ही महसूस होता है जैसे मलाई का दही जमाया गया है। आधा ग्लास लस्सी तो चम्मच से खानी पड़ती है। पहली बार इस दुकान पर जानेवाले को भ्रम हो सकता है कि ‘घमण्डी’ है, शायद अक्खड़पन के साथ लस्सी पेश की जाएगी, "पीना है तो पी, नहीं तो रास्ता नाप।"
लेकिन ऐसा कुछ नहीं है। सुना है दुकान के संस्थापक का नाम है घमण्डीलाल, जो ऐसा ब्राण्ड-नेम बन चुका है कि बदलना आसान नहीं और अगर बदला तो घाटे का सौदा हो सकता है। स्वाद की मजबूरी कहें या ब्राण्ड-नेम का आकर्षण शहर का हर वह व्यक्ति जो खुद को कुछ खास मानता है,इस दुकान पर जाता ही है। और कॉलेज के लड़के-लड़कियों को तो यह प्रिय मिलन स्थल है। कहानी का थोड़ा सा सम्बन्ध एक मन्त्री से भी है, लेकिन उसकी चर्चा बाद में।
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‘घमण्डी लस्सी’ |
तो अब कहानी शुरू करूँ!
लड़की यानी कहानी की हीरोइन सुन्दर थी। थोड़ी घमण्डी सी लगती थी। शायद यह घमण्ड रूप का था। पढ़े-लिखे होने का भी हो सकता है, क्योंकि दुकानदार परिवार में वह सबसे ज्यादा पढ़ी थी। वैसे कहा जाता है कि पढ़े-लिखे होने का कोई घमण्ड नहीं होता, बल्कि घमण्ड न होना पढ़े-लिखे होने की पहचान मानी जाती है। फिर भी उसे घमण्ड था, तो शायद ऊँचे या सम्पन्न परिवार का होगा।
लड़का लगनशील था। प्रेम के मामले में तो जरा ज्यादा ही लगनशील था। लड़की से इतना डूबकर प्रेम करता कि एक इशारे पर बिछ-बिछ जाता। जिसे कहते हैं जान छिड़कने पर आमादा बल्कि आप समझ लो कि अगर लड़की बोल दे, "जानू, मेरे बालों में गूँथने कि लिए दो तारे ला दो ना,प्लीज।"
तो बन्दा तारों के लिए पूरी मण्डी छान मारे। पता लगाए कि कहीं ‘बाय वन गेट वन फ्री’ की स्कीम तो नहीं चल रही है। फिर ऐसी कुछ जुगत भिड़ाए कि दो तारों के साथ चाँद के कुछ टुकड़े भी उठा लाए और दोनों तारे लड़की की वेणी में लगाते हुए कहे, "लो डीअर, ये चाँद के टुकड़े भी रखो। ऐड़ी, कोहनी पर रगड़ना, देखना चाँद सी चमकने लगेगी।"
क्षमा कीजिए, इतना बताने के बाद अब मुझे लग रहा है, लड़की के जरा घमण्डी होने का कारण उसका दीवाना प्रेमी ही था। सोचिए, ज्यादा कोशिश किए बिना बल्कि बिना कोशिश के ही, किसी लड़की को दिखाने लायक यानी प्रेजेण्टेबल प्रेमी मिल जाए, तो अगले को घमण्ड नहीं हो जाएगा?
गचागच भरी जवानी में चल रहे थे दोनों। लड़की जब देखो तब नखरों का भरा तरकश लिए चलती, तो लड़का हर चितवन पर घायल होने को आतुर रहता। यहाँ अब मुझे लग रहा है, लड़के-लड़की का नाम बता देने में ही कहानी की खैरियत है। तो लड़के का नाम था बनवारी और लड़की का लक्ष्मी, जिसे जुबान की मरोड़ से बचते हुए सब लोग लछमी ही कहते। प्रेमकथा के लिए कितने अन-रोमाण्टिक नाम हैं ना? डार्लिंग लछमी और डीअर बनवारी सुनते ही लगता है, किसी नाटक के कथानक को आगे बढ़ाने वाले नौकर-नौकरानी हों। इसीलिए नाम बताने में मैंने देर लगाई।
प्रेम बरसों से जारी था। जाने कब शुरू हुआ। तीसरी क्लास से साथ पढ़े। एक ही बस में स्कूल जाते। फिर अपने दो-पहिया वाहनों पर कालेज जाने लगे। विषय अलग-अलग थे, लेकिन क्लास के बाद मिलते रहते। केण्टीन में साथ ही बैठते। दोनों के घर भी बस थोड़ी सी दूरी पर थे। बस,इतनी दूर कि ऊपर की मंजिल की खिड़की से जरा सा आगे झुके कि अगले का छज्जा दिखाई दे जाए। लड़के के पिता श्रीवल्लभ की चाट की दुकान और लड़की के पिता मुरलीधर की किराने की। खरीदी के लिए इक-दूजे की दुकान पर लगातार आना-जाना।
ऐसे में यह बताना तो मुश्किल ही है कि दोनों के बीच प्यार कब हो गया? हो सकता है नौ बरस की ऊम्र में हुआ हो, ऐसा तो नहीं हुआ होगा कि सरकारी मानदण्ड का सम्मान करते हुए, दोनों ने तय कर लिया हो कि पूरी तरह बालिग हो जाने के बाद ही प्रेमी-प्रेमिका बनेंगे। जो भी हुआ हो,बस, इतना कह सकते हैं कि बस हो गया। प्यार था, पर प्रेमकथा नहीं थी।
तभी एक दिन बनवारी के अनुरोध पर लछमी घमण्डी-लस्सी पीने चली तो गई, पर नखराली ने दुकान के बाहर खुले में बैठने से मनाकर दिया। बोली, "यहाँ नहीं, लोग घूरते हैं।"
अय्यारों वाले अन्दाज से देखें तो लछमी के इस व्यवहार से निष्कर्ष निकलता है कि वह इस दुकान पर पहले कभी बाहर खुले में बैठकर लस्सी पीने और तथाकथित लोगों द्वारा घूरे जाने का अनुभव ले चुकी थी। प्रेम की डूब में दोनों को ध्यान ही नहीं रहा कि हमारे शहर में गन्ने का रस,कॉफी या लस्सी पीने के लिए कोई लड़का-लड़की बन्द केबिन में बैठें, तो उन्हें पक्के तौर पर प्रेमी-प्रेमिका मान लिया जाता है, जिसकी खबर भले न छपे, पर आसपास फैलती जरूर है।
अस्तु, उन दोनों ने बन्द केबिन में बैठकर लस्सी पी। जैसा कि हमारे शहर के प्रेमी-प्रमिकाओं के बीच परम्परा है, एक-एक ग्लास लस्सी हलक के नीचे उतारने में लछमी और बनवारी को भी डेढ़ घण्टे से ज्यादा ही लग गया। सर्व करनेवाले वेटरों ने इक-दूजे को हलकी सी आँख मारी और सहज प्रेम खबर बनकर एकाएक प्रेमकथा में तब्दिल हुआ।
और आप तो जानते हैं, प्रेमकथा की पहली ही पायदान पर खड़े होते हैं अड़ंगा लगानेवाले। तीन ऑप्शन होते अड़ंगा लगाने के। कहानी को हिंसा की ओर ले जाना हो, तो अड़ंगा कोई गुण्डा यानी विलेन लगाता है। करुणा या नैतिकता का बघार लगाना हो, तो अड़ंगा लड़के या लड़की के किसी पूर्व प्रेमी या प्रमिका द्वारा लगाया जाता है, मैं तुम्हारे बच्चे की माँ बनने वाली हूँ टाइप।
लेकिन इस कहानी में तीसरे ऑप्शन ने अड़ंगा लगाया। एक से दूसरे मुँह और कान होती हुई चटखारे के साथ घमण्डी-लस्सीपान-मिलन की सूचना तीसरे ऑप्शन यानी लछमी और बनवारी के दुकानदार पिताओं के पास जैसे भी हो पहुँच गई। तुरन्त सख्ती दिखाई लछमी के पिता मुरलीधर ने, "कल से तुम कार में कॉलेज जाओगी-आओगी। उस लड़के से मिलने की कोशिश की, तो पढ़ाई बन्द करवा दूँगा।"
लछमी ने थोड़ा सा विरोध करते हुए समझाना चाहा कि बनवारी तो बचपन से उसका दोस्त है। झूठ बोला कि आप जैसा समझ रहे हैं, वैसा कुछ नहीं है। यह भी बताया कि बनवारी की दोस्ती के कारण ही कॉलेज में और रास्ते पर आते-जाते कोई उसे छेड़ने की हिम्मत नहीं करता। एक तिरछे से वाक्य द्वारा लछमी ने बताना चाहा कि बनवारी पढ़ाई में भी अव्वल है और उसके परिवार का स्तर भी तो हमारे जैसा ही है और इस इशारे को शादी की बात चलाने का इशारा मानते हुए, जिसे कहते हैं आग, उसमें घी पड़ गया। लछमी को पता ही नहीं था कि मुरलीधर इस सड़क पर अपने को श्रेष्ठतम माने बैठे हैं, नीचे स्तर के श्रीवल्लभ के घर बेटी नहीं दे सकते। कुटुम्ब के तीन-चार बच्चे उसी कॉलेज में पढ़ते थे। कड़े स्वर में उन्हें हिदायत दी गई, "नजर रखना, उस बनवारी . . . से मिले नहीं।"
जबकि बनवारी के पिता श्रीवल्लभ ने तरकीब से काम लेते हुए आदेश दिया, "बेटा, कल से आपको पाँच घण्टे दुकान पर बैठना है। अब धीरे-धीरे यह सब तुम्हीं को सम्हालना है। जल्दी ही दुकान के रिनोवेशन का काम भी देखना है।"
मिलन मुहाल हो गया। दूसरे ही दिन से कॉलेज में कोई न कोई हमेशा लछमी के साथ लगा रहता, तो आखिरी पिरियड आते न आते श्रीवल्लभजी बनवारी के मोबाइल की घण्टी बजा देते। सुकून पहुँचानेवाली बात बस इतनी हुई कि बन्दिश के दूसरे दिन बनवारी को अपने वाहन के ब्रेकवायर में कागज की पर्ची फँसी मिली। लिखा था, ‘‘ लस्सी पीना जहर हो गया। बन्दिशें लग गई। मिलने पर रोक, वरना कॉलेज बन्द। पर - फिकर नॉट। हमेशा तुम्हारी - ल।
देखते ही बनवारी जान गया, लछमी प्रिया ने कितनी जल्दबाजी में लिखा है। अनुभवी मजनू की तरह उसने पर्ची को कई बार पढ़ा। अन्त में लिखे ‘फिकर नॉट’ और ‘हमेशा तुम्हारी’ को कलेजे में उतारा। पर्ची को सहेजकर जेब में रखने से पहले ‘फिकर नॉट’ उसका अपना शब्द हो गया।
धौंस पढ़ाई छुड़वा देने की थी, इसलिए दोनों ने छुपकर मिलने का प्रयास नहीं किया। फिर भी किसी फ्री-पिरियड में सहेली के मोबाइल से बात हो जाती। बातों में प्रेम को दोहराने के साथ अड़ंगों का विश्लेषण होता, कसम के साथ रुकावटों को हटाने के मन्सूबे बुने जाते। शान्ति और विरोधहीनता देख दोनों पिताओं को लगा, उन्होंने मैदान मार लिया। अन्य अड़ंगेबाज पिता सबक ले लें, इसलिए बता दूँ - प्रेमकथा में घनघोर शान्ति और विरोधहीनता रुके हुए तूफान, बन्द मुँह के ज्वालामुखी या टाइटेनिक डुबोने वाले आइसबर्ग का पूर्व संकेत होते हैं।
वैसे तो प्रेम की अगन दोनों ही तरफ इक्वल-इक्वल थी, पर कहानी के मान से कहा जाए तो पूरे तीन साल थमी रही प्रेमकथा। दोनों ने पढ़ाई पूरी की। लछमी ने कॉमर्स में टॉप किया और प्रोफेसर बनने के इरादे से एमफिल की ओर कदम बढ़ाए। वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में तमाम इनाम पाए, अखिल भारतीय शील्डें जीती। शहर के उभरते हुए आर्थिक-राजनीतिक विश्लेषणकर्ताओं में उसकी गिनती होने लगी। किराने के दुकानदार की आजस्वी भाषण देने वाली बेटी को गोष्ठियों में बुलाया जाने लगा। और इसी बीच बनवारी ने पढ़ाई जारी रखते हुए दुकान का रिनोवेशन भी किया। जो दुकान बरसों से अनाम थी, उसे नाम दिया - फिकर नॉट चाट सेण्टर।
कॉमर्स के जानकारों की मानें तो फिकर नॉट नाम जुबान पर चढ़ने की काबिलियत रखता है। यही हुआ। बिक्री बढ़ी, लोकप्रियता बढ़ी, पढ़ाई पूरी हुई, शहर में ‘फिकर नॉट’ एकाएक ‘घमण्डी’ की तरह ब्राण्डनेम बन गया। बनवारी को अब लोग फिकर नॉटवाले बनवारी के रूप में भी जानने लगे और महत्वपूर्ण पार्टियों में, बैठकों में उसे सादर बुंलाया जाने लगा। स्तर बदला तो चन्दे की आशा की जाने लगी।
लेकिन इस नाम ने प्रेम की सीमेण्ट का भी काम किया। रोज दुकान में प्रवेश करते हुए बनवारी‘फिकर नॉट’ पर एक नजर डालता और मन ही मन कहता, लछमी मेरी है, सिर्फ मेरी, फिकर नॉट। लछमी भी अपनी खिड़की से, कभी घर से बाहर आते-जाते बोर्ड को देखती और बनवारी को याद करती। ‘आह’ जैसा कुछ भरने का तो सवाल ही नहीं था, पर कई बार मुस्कान के साथ खुद से कहती, "वही है मेरी मंजिल, फिकर नॉट।"
चाट के आयटम बदल गए थे या फिर यह बनवारी की कॉलेज की दोस्ती का प्रभाव था कि फिकर नॉट चाट सेण्टर पर आनेवालों में युवावर्ग का बोलबाला हो गया। जो भी यहाँ आता एक बार दुकान के अजीब नाम पर विचार जरूर करता। अनुमान लगाए जाते। लछमी की लिखी ब्रेकवायर में फंसी प्रेम-पर्ची का तो कोई सोच भी नहीं सकता था। लगभग दोस्त बने ग्राहक कभी कहते, "भाई बनवारीजी, अपने शहर के लोगों के स्वभाव के लायक ही नाम रखा है आपने।"
"क्या मतलब? मैं समझा नहीं।" सदा मुस्कुराते बनवारी का प्रतिप्रश्न होता और मस्ती भरा जवाब मिलता, "अरे भई, ये अपने ही शहर का तो चरित्र है, इधर बेटी की भाँवरें पड़ रही हैं और पिताजी पान खाने चले गए, फिकरनॉट।"
फिर भी बनवारी और लछमी के बेहद करीबी दोस्तों-सहेलियों के साथ ही उड़ती चिड़िया के पंख गिनने में माहिर कुछ का अनुमान भी वास्तविकता के करीब पहुचता और वे काउण्टर के पास आकर धीमे स्वर में पूछ ही मारते, "बड़े भइया, ये फिकरनॉट किसी को सन्देश देने के लिए लिखा है ना?"
जवाब में बनवारी की ओर से जो मुस्कान परोसी जाती, उससे ग्राहक का चटखारा और बढ़ जाता।
जिन्दगी-फेक्ट्री के तमाम उत्पादनों में प्रेम सबसे कम खर्चीला होते हुए भी सबसे लोकप्रिय ब्रेण्ड नेम है और हर प्रेमी-प्रमिका उसके स्थाई ब्रेण्ड एम्बेसेडर। तीन साल से ज्यादा हो गए, फिकर नॉट की प्रेमकथा रुकी रही, कदम-ताल करती रही। जमीन से चिपकी यानी डाउन टू अर्थ और सीधी-सपाट प्रेमकथा में यही सबसे बड़ा फायदा है। जमीन तो आप जानो कि क्षितिज पर जाकर गोल घूम जाती है, पर निपट सीधी होने के कारण प्रेमकथा धरती छोड़ आसमान की ओर उठ जाती है। यही हुआ इस फिकर नॉट प्रकरण में भी।
लछमी कभी ‘फिकर नॉट’ पर चाट खाने नहीं गई, पर उस घटना के बाद उसने ‘घमण्डी’ की ओर भी रुख नहीं किया। पर लोकप्रियता के आलम में कहें या फिर इसे मेघदूत की तर्ज पर चाट-दूत कहना होगा, दोस्त और सहेलियाँ फिकर नॉट से पार्सल बँधवाते और लछमी के छज्जे पर बैठकर ठिठोली करते हुए खाते सन्देश पहुँचा देते। शहर में कभी किसी बड़ी समस्या पर परिचर्चा आयोजित होती तो लछमी का भाषण बनवारी पिछली सीट पर बैठकर सुनता, अच्छे भाषण के लिए बधाई का एसएमएस भेजता। फिर एक दिन एक पारिवारिक पार्टी में तो यह भी हो गया कि लछमी के पिताश्री यानी मुरलीघर ने दहीबड़े या किसी ओर चीज की तारीफ कर दी और सुनने को मिला, "अरे साब, आप क्या तारीफ कर रहे हैं! यह सब तो आपके बनवारीजी की केटरिंग का ही कमाल है।"
सुनकर पास खड़ी लछमी ने मुस्कुराकर सिर दूसरी दिशा में क्या घुमाया, मुरलीधर पिता-सुलभ चिन्ता में डूब गए। शायद थोड़ी आशंका पहले से रही होगी, तभी तो झट से संकेत पकड़ लिया कि बनवारी-लछमी प्रणय-चेप्टर के अन्त में दी-एण्ड नहीं क्रमशः लिखा है। टू बी कण्टीन्यूड का कुछ हिस्सा ऐसा है, जिसे वे खुद को सजग मानने के बावजूद नहीं जानते, इसलिए जल्दी ही कुछ करने की जरूरत महसूस हो गई। और श्रीवल्लभ को यही एहसास उस दिन हुआ जिस दिन लछमी की बर्थ-डे पार्टी का सारा सामान उनकी ही दुकान से गया और फिर बनवारी भी काफी देर के लिए काउण्टर से गायब हो गया।
उम्र बढ़ रही थी। माफ कीजिए, जवानी में उम्र बढ़ती नहीं, शादी के लायक हो जाती है। ऐसे में दोनों की शादी की बात चलना स्वाभाविक था। गलत मत समझना, बनवारी और लछमी की आपस में शादी की बात चलने का तो सवाल ही नहीं उठा। शादी की बात चली बनवारी की ऐसी लड़कियों के लिए जिनके पिता लाखों का दहेज दे रहे थे। बात चली लछमी की जिसे बड़े परिवारवालों ने माँगा था, सुना है, लड़की के गुणों को देखते हुए दहेज की माँग बहुत ही कम कर दी थी।
अब यहाँ आई कहानी की दूसरी पायदान, जहाँ लड़का और लड़की दोनों अपनी जगह सफल थे,परिपक्व थे यानी कमजोर नहीं मजबूत थे और अड़ंगों के बीच प्रेम करके दुःखी होने वालों को प्रेरक सन्देश दे रहे थे कि सफलता का मुकाम हासिल होने के बाद आपकी हर किसी लप्पन-छप्पन से शादी करवाना पिताओं के बूते वे बाहर हो जाता है, फिर वे चाहे जितने आदरणीय पिताश्री क्यों न हों।
आप्त-कथन यह भी है कि अगर आप किसी से अटाटूट प्रेम कर रहे हों, तो फिर अन्य लड़कियाँ आपकी फेसबुक पर नापसन्द की सूची में दर्ज होती जाती हैं। एक-एक कर तमाम रिश्ता-प्रस्तावों को रिजेक्ट करते हुए फिकर नॉट को ब्राण्डनेम बना चुके, सफलता की सीढ़ी पर खड़े बनवारी ने एक दिन किसी प्रस्ताव को मान लेने के लिए बहस करते पिता से कहा, "आप जरा एक बार लछमी के लिए बात तो कीजिए।"
"उस कंगाल से? पच्चीस लाख मुरली का बाप भी नहीं दे सकता।" तमक कर जवाब दिया श्रीवल्लभ ने और व्यापारी-पुत्र बनवारी ने - आपको मण्डी में मेरी बोली लगाने का कोई हक नहीं है। लछमी नहीं मिली तो मैं जान दे दूँगा। पैसे को भगवान मत मानिए, दहेज लेंगे तो मैं शादी ही नहीं करूँगा, जैसा एक भी फिल्मी डॉयलॉग नहीं मारा, क्योंकि वह जानता था, आजन्म दुकानदार पिता के आगे पैसे की निरर्थकता के सारे तर्क बेमतलब होते हैं। गचागच तर माल खाते, पैर दबवाते साधु-सन्तों की पीढ़ियाँ खप चुकी हैं और आगे भी खपती रहेंगी यही प्रयास करते।
बनवारी ने सारे विवाह प्रस्ताव रिजेक्ट कर दिए। लछमी ने भी लड़कों के ऐब गिना दिए। माना कि लड़की में शादी के प्रस्ताव को रिजेक्ट करने का उतना दम नहीं होता, लेकिन प्रेमकथा में ऐब भी कई बार गुण बन जाते हैं। मैंने बताया ना, लड़की जरा धमण्डी थी। उसकी यही अदा काम आई उन एक-दो मामलों में, जहाँ शादी की उत्सुक पार्टी लड़की पसन्द करने घर चली आई थी। पूछे गए प्रश्नों पर लछमी ने प्रतिप्रश्न क्या कर डाले, मामला फिस्स हो गया। देखने वाले वापस ही नहीं गए, उन्होंने दस घरों में जाकर लछमी के घमण्ड की चर्चा भी कर दी।
परिपक्वता ने दोनों को सीख दी, अड़ंगेवालों से डरो मत, भागो मत, घबराओ भी मत, धीरज धरो,बस, किसी भी तरह से उनके प्रस्तावों को टालते, अस्वीकार करते चलो। फिर प्रेम नामक ब्रेण्डनम की यह भी तो खासियत है कि कोशिश करनेवालों की ऊपरवाला मदद करता है। मोबाइल-चर्चा दोनों के बीच अभी भी होती रहती। एक-दूसरे के पिता की शर्ताें की दोनों को जानकारी थी। अब यहाँ आती है प्रेमकथा की तीसरी पायदान, जिसे कहते हैं, चांस या भाग्य। अगर इसे ऊपरवाले का भेजा अवसर कहा जाए तो मुझे कोई आपत्ति नहीं, पर देखिए, वह कैसे भुन गया।
बात तब की है, जब नए-नए चुनाव हुए थे और चुनाव के बाद नए मन्त्रीमण्डल ने शपथ ली थी। उन्हीं दिनों शहर की प्रसिद्ध फर्म घमण्डी लस्सी वालों के यहाँ शादी का रिसेप्शन था। बनवारी और लछमी के व्यापारी पिताओं को सपरिवार आमन्त्रण था। यहीं पर अर्से बाद बनवारी और लछमी मिले, तो लछमी ने घमण्डियों की ओर इशारा कर कहा, "हमारी शादी में तो रुकावट डाल दी और खुद . . . ।"
हँसते हुए दोनों दूर चले गए। श्रीवल्लभ के सामने पड़ते ही लछमी ने पैर छुए। अचकचाते हुए श्रीवल्लभ ने आशिर्वाद दिया और लछमी वहीं चुपचाप खड़ी हो गई। व्यापारियों के बीच उसी दिन हुए मन्त्रियों के विभागों के बंटवारे पर चर्चा चल रही थी। नए खाद्य मन्त्री को लेकर टिप्पणियाँ हो रही थी। बढ़-चढ़कर तारीफ करनेवाले कुछ लोग हर तरह से जता रहे थे कि वे खाद्यमन्त्री को निजी तौर पर जानते हैं। बेगानी शादी में उद्योगपति और व्यापारी ऐसी ही बातें तो करते हैं।
यहीं पर बड़ों के बीच चर्चा में कूदते हुए लछमी ने ऐसा कुछ कह दिया कि सब चुप होकर उसकी ओर देखने लगे। यह भी हुआ कि उसकी बात से सहमत-असहमत होने के बजाय व्यापारी समूह छिटक गया। और बनवारी के पिता उस लड़की को देखते रह गए, जिस पर उनका सफल किन्तु नादान बेटा दीवाना था।
बनवारी और लछमी ने जब घटना का विश्लेषण किया तो निष्कर्ष निकला कि दहेज की तो शिकायत थी ही, घर की बहू के रूप में श्रीवल्लभजी को लछमी शायद बड़बोली भी लगी होगी। यह तो चार महीने बाद पता चला कि मन्त्री के बारे में तीखी बात करके उस दिन लछमी ने सामने आए अवसर को भुना लिया, जब एक दिन पूरे परिवार के बीच श्रीवल्लभजी ने बेटे के मुँह में मिठाई ठूँसते हुए कहा, "खुश हो जा, तेरी शादी तय करके आया हूँ। शाम को ‘रोका की रस्म’ करने चलना है।"
बनवारी के चेहरे का रंग उतरा देख उन्होंने तुरन्त स्पष्टीकरण दिया, "घबराए मत, लछमी से ही कर रहा हूँ तेरी शादी।"
फिर हँसी की लहर के बीच सबको मिठाई बाँटते हुए उन्होंने बताया, "तुम लोगों को बताए बगैर चला गया था। पता नहीं, वो लोग मना कर देते तो। पर सबको मनाकर ही लौटा। शाम को चलने की तैयारी करो।"
रोका हो गया। शादी की तारीख तय हो गई है। मिलने पर अब रोक नहीं है। दोनों घरों में आना-जाना शुरू हो गया है। लेकिन यह रहस्य अब तक नहीं खुला कि आखिर ऐसा क्या हुआ कि श्रीवल्लभ बिना दहेज की शादी के लिए मान गए? वो कैसा अवसर था, जो उस दिन ‘घमण्डी’ की शादी में लछमी ने भुनाया। श्रीवल्लभ बार-बार ‘गुणी बहू’ कहकर लछमी की तारीफ करते हैं और साथी व्यापारी उनका साथ देते हैं, तो लछमी कुछ अनुमान लगा लेती है। लछमी के अनुमान से बनवारी भी सहमत है।
अब यहाँ आकर कहानी का अन्त होना था कि आजकल श्रीवल्लभ बनवारी और लछमी के बीच विचार चल रहा है कि बदली परिस्थितियों में दुकान का नाम ‘फिकरनॉट’ के बजाय ‘लछमी चाट सेण्टर’ कर दिया जाए। घर के अन्य सदस्य बनवारी से मजाक कर रहे हैं, "शादी के बाद तो बनवारी भैया, लड़के को फिकर ही फिकर करना होता है, अब काहे का फिकरनॉट।"
लेकिन श्रीवल्लभ के हृदय परिवर्तन का रहस्य जाने बगैर आप मानेंगे नहीं कि कहानी पूरी हो गई है। तो सुनिए, उस दिन व्यापारियों की चर्चा में लछमी के अन्दर का विश्लेषक एकाएक जागृत होकर बोल पड़ा था, "ये जो नए खाद्यमन्त्री हैं ना! ये तेल और शकर लॉबी के मित्र हैं। उन्हीं के बल पर चुनाव जीते हैं। देख लेना, तेल और शकर के भाव जल्दी ही आसमान छूएँगे। चाहें तो आप भी लाभ उठा सकते हैं।"
लछमी का अनुमान है, श्रीवल्लभजी ने, शायद उनके साथियों ने भी लाभ ले लिया। जो भी हुआ हो, इस कहानी से व्यापारी पिताओं को इतना सबक तो ले ही लेना चाहिए कि दहेजवाली बहू से गुणी बहू लाख गुना बेहतर है। और बहू के गुणी होने का एक प्रमाण यह भी है कि लछमी ने अपने होने वाले पति और ससुर से साफ कह दिया है, "घमण्डी की ही तरह ‘फिकरनॉट’ भी एक ब्राण्डनेम बन चुका है। हम उसे कभी नहीं बदलेंगे।" - रोमेश जोशी